A Poem on Father's Day| वो ज़ईफ़ शजर
मिरे पुराने मकान
की टूटी दीवारों पे
इक चिड़िया आती थी रोज़ाना,
वहीं बसता था इक
शजर भी,
ज़ईफ़ शजर,
जिसकी बूढ़ी शाख़ें अक्सर
उस टूटी दीवार पे
आराम फ़रमाती थीं,
कल रात जब आसमान से
बादलों के टुकड़े टूट कर
ज़मीं पे बूँद बन गिरे थे,
तब ज़ईफ़ शजर की शाख़ें
उस चिड़िया का आशियाना
बन गयी थी,
हू-ब-हू इक वालिद की तरह,
जिसकी बांहें ही होती हैं
पहला आशियाँ
इक औलाद का।
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ज़ईफ़- बूढ़ा(Old)
शजर- पेड़(Tree)
वालिद- पिता(Father)
एक नयी आमद मेरे मजमुए' में। पेश-ए-ख़िदमत है इक नयी नायाब नज़्म। हम हमेशा माँ की बात तो करते हैं कि माँ के जैसा कोई नहीं। पर जब बात पिता की आती है तो कहने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। तो इस दफ़ा मैं मेरी नज़्म के ज़रिए आपको पिता के बारे में वो बात बताऊँगा जिसपर अक्सर हम कम ही ध्यान देते आए हैं। जब किसी बच्चे का जन्म होता है उस वक़्त से लेकर ता-उम्र पिता की बाँहें ही उसका पहला घर होती हैं। उम्मीद करता हूँ आपको यह नज़्म पसंद आयी होगी तो शेयर करना ना भूलें और भी ऐसी ही ख़ूबसूरत नज़्मों और शिक्षात्मक(Educational)ब्लॉग पढ़ने के लिए ज़रूर विज़िट करें मेरी वेबसाइट www.utkarshmusafir.com पर।