यहाँ आसमां का रंग नीला नहीं है,
कुछ भूरा या काला सा है,
यहाँ आफ़ताब की ज़र्द
रोशनी नहीं आती है,
दिखता है तो केवल सामने की दीवार
पे टंगा इक कंपकंपाता हुआ ज़ईफ़ बल्ब,
यहाँ से बाहर की तस्वीर धुंधली नज़र
आती है,
या यूँ कहूं कुछ नज़र ही नहीं आता है,
बस सुनायी देती हैं सड़कों पे दौड़ती फिरती
गोलियों और धमाकों की आवाज़ें,
यहाँ हर शख़्स अब चुप सा दिखता है,
पर आती नहीं नज़र चेहरे पे ख़ामोशी,
हर आदमी के भीतर बैठा इक और आदमी
चिल्ला रहा है ज़ोर-ज़ोर से,
कह रहा है ख़त्म करो ये दौर-ए-रज़्म,
कोई तो ज़रूर जीतेगा और हारेगा ज़रूर कोई,
पर ग़र हम रह गये यूँही यहाँ
तो डर है कहीं हमें आदत ना पड़ जाये
यूँही बंकर में ऐसे रहने की,
ऐसे ही बंकर में जीने की
बंकर में ऐसे ही मरने की।
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रूस और यूक्रेन युद्ध के दौरान एक युद्ध में फँसे एक व्यक्ति जिसे कि मजबूरन अपना घर छोड़कर एक बंकर में रहना पड़ रहा है का दर्द बयां करती हुई इस नज़्म को ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करें। और भी ऐसी ही ख़ूबसूरत नज़्मों/कविताओं को पढ़ने के लिए ज़रूर विज़िट करें मेरी वेबसाइट www.utkarshmusafir.com पर।